समकालीन कविताएँ >> मिले किनारे मिले किनारेरामेश्वर कम्बोज
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
काम्बोज जी से व्यक्तिगत परिचय बरेली आने पर आज से 24 वर्ष पूर्व हुआ। इनकी रचनाओं से मैं पहले से ही परिचित था। लघुकथा, कविता व्यंग्य, समीक्षा, लेख आदि सभी में इनकी पकड़ सदा समाज की नब्ज़ पर रही है। सामाजिक सरोकार कभी भी इनकी रचनाओं से ओझल नहीं हुए।
हाइकु 1986 से लिख रहे थे, लेकिन उस समय जिस तरह की रचनाएँ आ रही थीं, ये उनसे सन्तुष्ट नहीं थे। ‘मिले किनारे’ संग्रह के ताँका और चोका रचनाओं में भी इनके वही सामाजिक सरोकार, वही अनुभूति की ईमानदारी, वही बेबाक अभिव्यक्ति दिखाई देती है, जो इनके जीवन का भी अटूट हिस्सा रही है।
मैंने इनको शिक्षक एवं प्राचार्य के रूप में भी निकटता से देखा है। ये जीवन और साहित्य में एक ही जैसी क्षमता से कार्य करते नज़र आते हैं। इनके चाहे ताँका हों या चोका, वे व्यक्ति और समाज के दुख-सुख के साक्षी ही नहीं, भागीदार बने दिखाई देते हैं। पर-दुखकातरता की इनकी विशेषता एक ओर इनकी भावभूमि है तो भाषा पर मज़बूत पकड़, सार्थक शब्द-चयन में इनकी परिपक्वता और क्षमता भाषा-संस्कार के रूप में हर पंक्ति में दृष्टिगत होती है। पाठक इनकी रचनाओं को पढ़कर इन्हें जान सकता है - इसमें दो राय नहीं हैं।
हाइकु 1986 से लिख रहे थे, लेकिन उस समय जिस तरह की रचनाएँ आ रही थीं, ये उनसे सन्तुष्ट नहीं थे। ‘मिले किनारे’ संग्रह के ताँका और चोका रचनाओं में भी इनके वही सामाजिक सरोकार, वही अनुभूति की ईमानदारी, वही बेबाक अभिव्यक्ति दिखाई देती है, जो इनके जीवन का भी अटूट हिस्सा रही है।
मैंने इनको शिक्षक एवं प्राचार्य के रूप में भी निकटता से देखा है। ये जीवन और साहित्य में एक ही जैसी क्षमता से कार्य करते नज़र आते हैं। इनके चाहे ताँका हों या चोका, वे व्यक्ति और समाज के दुख-सुख के साक्षी ही नहीं, भागीदार बने दिखाई देते हैं। पर-दुखकातरता की इनकी विशेषता एक ओर इनकी भावभूमि है तो भाषा पर मज़बूत पकड़, सार्थक शब्द-चयन में इनकी परिपक्वता और क्षमता भाषा-संस्कार के रूप में हर पंक्ति में दृष्टिगत होती है। पाठक इनकी रचनाओं को पढ़कर इन्हें जान सकता है - इसमें दो राय नहीं हैं।
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